बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 45)

"अब, लड़की नहीं, लड़की की आजी तक को दिखाओ तो भी मैं नहीं जाऊँगा। 


जब घर में, अपने नातेदारों में लड़की है तब दूसरी जगह नहीं जाना चाहिये। 

यह तो धर्म छोड़ना है।

 गृहस्थ की लड़की का रूप नहीं देखा जाता, गुण देखा जाता है।

 कहते हैं, रूपवती लड़की बदचलन होती है।"

"तो यह तेरे लिये सावित्री आ रही है। देख ले, अगर गाँव के धिंगरों से पीछा छूटे।"

"वह सब हमें मालूम है। 

लेकिन घर का सामान लेकर भाग न जायगी, देख लेना। 

जो मुसीबत पड़ेगी, झेलेगी। किसी का धर्म बिगाड़ने से नहीं बिगड़ता।

 गाँव में सब का हाल हमें मालूम है।"

"तू सबको दोष लगा रहा है।"

"मैं किसी को दोष नहीं लगा रहा, सच-सच कह रहा हूँ।"

"अच्छा बता, हमें क्या दोष लगा है, नहीं तो––"

"तुम चले जाओ यहाँ से, नहीं तो मैं चौकीदार के पास जाता हूँ।"

चौकीदार के नाम से त्रिलोचन चले। करुणा-भरे क्रोध से घूमघूमकर देखते जाते थे।

बिल्लेसुर अपना काम करने निकले।

(14)
कातिक लगते मन्नी की सास आईं। कुछ भटकना पड़ा।

 पूछते पूछते मकान मालूम कर लिया। 

बिल्लेसुर ने देखा, लपककर पैर छुए। मकान के भीतर ले गये। खटोला डाल दिया। 

उस पर एक टाट बिछाकर कहा, "अम्मा, बैठो।" खटोले पर बैठते हुए मन्नी की सास ने कहा, "और तुम खड़े रहोगे?" बिल्लेसुर ने कहा, "लड़कों को खड़ा ही रहना चाहिये। 

आपकी बेटी हैं तो क्या? जैसे बेटी, वैसे बेटा। 

मुझसे वे बड़ी हैं। 

आप तो फिर धर्म की माँ। 

पैदा करनेवाली तो पाप की माँ कहलाती है। तुम बैठो, मैं अभी छनभर में आया।"

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